राजा की रानी
“उसका क्या दोष?”
“दोष कैसे नहीं है? अपना कलंक छुपाने के लिए उसी से आत्महत्या करने में सहायता माँगी थी। उस दिन तो यतीन स्वीकार नहीं कर सका, किन्तु एक दिन अपना कलंक छिपाने के लिए उसे भी वही मार्ग सबसे पहले नजर आया। ऐसा ही होता है, इसीलिए पाप में सहायता के लिए किसी मित्र को नहीं बुलाना चाहिए। इससे एक का प्रायश्चित दूसरे के गले पड़ जाता है। वह स्वयं तो बच गयी, किन्तु उसके स्नेह का धन मर गया।”
“युक्ति कुछ समय में नहीं आई, लक्ष्मी।”
“तुम कैसे समझोगे? समझा है कमललता ने और तुम्हारी राजलक्ष्मी ने।”
“ओ:-ऐसा है!”
“नहीं तो क्या। भला कहो तो हमारा जीवन कितना-सा है, उसका क्या मूल्य है, जब हम देखती हैं तुम्हारी तरफ...।”
“किन्तु कल तुमने ही तो कहा था कि मेरे मन की सब कालिख साफ हो गयी और अब कोई ग्लानि नहीं है, तो वह क्या झूठ था?”
“झूठ ही तो था। कालिख तो मरने पर ही पुछेगी, उससे पहले नहीं। मरना भी चाहा था, केवल तुम्हारे ही कारण न मर सकी।”
× हरे रंग का एक पतिंगा
“सब मालूम है, पर तुम यदि इसे लेकर बारम्बार दु:ख दोगी तो मैं इस तरह भाग जाऊँगा कि फिर ढूँढ़ने पर भी न पाओगी।”
राजलक्ष्मी ने भयभीत होकर मेरा हाथ पकड़ लिया और बिल्कुरल छाती के पास खिसक आयी। बोली, “अब ऐसी बात कभी मुँह पर भी नहीं लाना। तुम सब कुछ कर सकते हो, तुम्हारी निष्ठुरता कहीं भी बाधा नहीं मानती।”
“तब कहो कि अब ऐसी बात न कहोगी?”
“नहीं कहूँगी।”
“बोलो, सोचूँगी भी नहीं।”
“तुम भी कहो कि अब मुझे छोड़कर कभी नहीं जाओगे।”
“मैं तो कभी गया नहीं लक्ष्मी, और जब कभी गया हूँ तब केवल इसीलिए कि तुमने मुझे नहीं चाहा।”
“वह तुम्हारी लक्ष्मी नहीं, कोई और होगी।”
“उस किसी और से ही तो आज भय लगता है।”
“नहीं, अब उससे मत डरो, वह राक्षसी मर चुकी है।”
यह कहकर उसने मेरे उसी हाथ को जोर से पकड़ लिया और चुपचाप बैठी रही।
पाँच-छह मिनट तक इसी प्रकार बैठे रहने के पश्चात उसने दूसरी चर्चा छेड़ दी, कहा, “तुम क्या सचमुच बर्मा जाओगे?”
“हाँ, सचमुच ही जाऊँगा।”
“जाकर क्या करोगे- नौकरी? पर हम लोग तो सिर्फ दो ही प्राणी हैं- हम लोगों की आवश्यकताएँ ही कितनी हैं?”
“किन्तु उन कितनी का भी तो प्रबन्ध करना होगा?”
“वह भगवान दे देंगे। पर तुम नौकरी नहीं करने पाओगे, यह तुम्हारे स्वभाव के अनुकूल नहीं है।”
“नहीं कर सकूँगा तो वापिस चला आऊँगा।”
“जानती हूँ, वापिस तो आना ही पड़ेगा, केवल मुझको कष्ट देने के लिए हठपूर्वक इतनी दूर ले जाना चाहते हो।”
“चाहो तो कष्ट नहीं भी करो।”
राजलक्ष्मी ने एक क्रुद्ध कटाक्ष फेंककर कहा, “देखो, चालाकी मत करो!”
मैंने कहा, “चालाकी नहीं करता, चलने से तुम्हें वास्तव में कष्ट होगा। भोजन पकाना, बर्तन माँजना, घर-बार साफ करना, बिछौने बिछाना...।”
राजलक्ष्मी ने कहा, “तब दाई-नौकर क्या करेंगे?”
“दाई-नौकर कहाँ? उनके लिए रुपये कहाँ हैं?”
राजलक्ष्मी ने कहा, “अच्छा न सही। तुम चाहे कितना ही भय दिखाओ, लेकिन मैं तो चलूँगी ही।”
“तो चलो। केवल मैं और तुम, काम के मारे न मिलेगा झगड़ा करने का अवसर और न मिलेगी पूजा तथा उपवास करने की फुर्सत।”
“न मिलने दो। मैं क्या काम से डरती हूँ?”
“सच है; डरती नहीं हो, पर तुम कर न सकोगी। दो दिन बाद ही वापिस आने के लिए आफत मचाना शुरू कर दोगी।”
“इसमें भी क्या कोई डर है? साथ लेकर जाऊँगी तथा साथ ही वापिस ले आऊँगी। कम से कम तुम्हें छोड़कर तो न आना होगा।” कहकर वह एक क्षण के लिए कुछ सोचने लगी, फिर बोली, “हाँ, यह ठीक रहेगा। एक छोटे से घर में केवल हम और तुम रहेंगे, न कोई दास होगा न दासी। जो खाने को दूँगी वही खाओगे, जो पहनने को दूँगी वही पहनोगे। नहीं? तुम देखना, मेरी आने की शायद इच्छा ही न होगी।”
सहसा वह मेरी गोदी में अपना सिर रखकर लेट गयी और बहुत देर तक ऑंखें बन्द कर निस्तब्ध पड़ी रही।
“क्या सोच रही हो?”
राजलक्ष्मी नेत्र खोलकर किंचित् मुस्कराई और बोली, “हम लोग कब चलेंगे?”
“इस मकान की कुछ व्यवस्था कर दो, फिर जिस दिन चाहो प्रस्थान कर दो।”
उसने सिर हिलाकर स्वीकृति जताई और फिर नेत्र मूँद लिये।
“फिर क्या सोच रही हो?”
राजलक्ष्मी ने ताकते हुए कहा, “सोच रही हूँ कि एक बार मुरारीपुर नहीं जाओगे?”
“हाँ, विदेश जाने से पूर्व एक बार उन्हें मिल आने का वचन तो दिया था।”
“तो चलो, कल ही दोनों चलें।”
“तुम भी चलोगी?”
“क्यों, इसमें डर क्या है? तुम्हें चाहती है कमललता और उसे चाहते हैं हमारे गौहर दादा। यह हुआ खूब है!”
“यह सब तुमसे किसने कहा?”
“तुम्हीं ने।”
“न, मैंने नहीं कहा।”
“हाँ, तुम्हीं ने कहा है, केवल तुम्हें यह खयाल नहीं है कि कब कहा है।” सुनकर संकोच से व्याकुल हो उठा। कहा, “खैर, जो कुछ भी हो, तुम्हारा वहाँ जाना उचित नहीं है।”
“क्यों नहीं है?”
“उस बेचारी का मजाक करके तुम उसे तंग कर डालोगी।”
राजलक्ष्मी की भृकुटी तन गयी, उसने क्रोधित स्वर में कहा, “अब तक तुम्हें यही परिचय मिला है? मैं क्या उसे इसीलिए लज्जित करूँगी कि वह तुमसे प्रेम करती है? तुमसे प्रेम करना क्या अपराध है? मैं भी तो स्त्री हूँ। यह भी तो हो सकता है कि जाने पर मैं भी उसे चाहने लग जाऊँ!”
“तुम्हारे लिए कुछ भी असम्भव नहीं है लक्ष्मी। चलो, तुम भी चलो।”
“हाँ, चलो, कल सवेरे की गाड़ी से ही हम दोनों चल दें। तुम कोई चिन्ता न करो, इस जीवन में मैं तुम्हें कभी दु:खी न करूँगी।”
इतना कहकर वह एक तरह विमना-सी हो गयी। ऑंखें बन्द हो गयीं, साँस रुकने लगा, सहसा न जाने वह कितनी दूर चली गयी।
भयभीत होकर उसे हिलाकर पूछा, “यह क्या?”
राजलक्ष्मी ऑंखें खोलकर किंचित् मुस्कराई और बोली, “कहाँ, कुछ भी तो नहीं!”
आज उसकी यह हँसी भी न जाने मुझे कैसी लगी!